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अमीन सयानी जन्मदिन विशेषः तब और अब के रेडियो में ज़मीन-आसमान का फर्क

अतुल सिन्हा
Updated Sat, 21 Dec 2019 01:46 PM IST
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अमीन साहब आज यानी 21 दिसंबर को 87 साल के हो गए। - फोटो : Social Media
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उस आवाज़ के हमसब दीवाने थे। तब रेडियो सीलोन खूब चला करता था और गीतमाला का इंतज़ार हर किसी को होता था। रेडियो पर फिल्मी गीतों के वैसे तो ढेरों कार्यक्रम थे, लेकिन अमीन सयानी के गीतमाला जैसा कोई नहीं था। सिर्फ इसलिए कि इसका अंदाज़ कुछ अलग था। टॉप गीतों को माला में पिरोने की अदा कुछ और थी, उस दौर के तमाम गायकों, गीतकारों, संगीतकारों से इंटरव्यू का तरीका कुछ और था। Trending Videos

अमीन साहब आज यानी 21 दिसंबर को 87 साल के हो गए। लेकिन आप यकीन नहीं करेंगे कि इस उम्र में भी उनकी आवाज़ में वही दम, वही अंदाज़ और वही चुलबुलापन बरकरार है। बहुत कुछ किशोर कुमार सरीखे लेकिन उनसे कहीं गहरे और गंभीर।

मुंबई के मशहूर रीगल सिनेमा के साथ वाली बिल्डिंग की दूसरी मंज़िल पर उनका दफ्तर और स्टूडियो है। तबियत थोड़ी गड़गड़ तो रहती है, लेकिन वो हर हाल में रोज़ दफ्तर आना और कुछ घंटे वहां गुज़ारना पसंद करते हैं। बात करते-करते अमीन साहब आज के हालात पर अपनी बेबाक राय कुछ इस तरह देते हैं-

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‘अगर हम अपने घर में ही उस ज़माने का माहौल देखें और आज का माहौल देखें तो बहुत सारी चीजें बदल गई हैं जैसे-जैसे वक्त गुज़रता है तो साथ-साथ ज़माना बदलता ही रहता है, गड़बड़ सिर्फ ये है कि हमारा पुराना जो ज़माना था उसमें एक गहराई होती थी, सच्चाई होती थी, उसमें हम दिल साफ रखकर सही बात कहते थे, लेकिन आजकल के ज़माने में झूठ फरेब गड़बड़ियां देखने को मिल रही हैं।
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हमारी ज़िंदगी में और सोच में भी ये बदलाव दिखते हैं। भ्रष्टाचार, बलात्कार, छीना झपटी, टैक्सेज ऐसे कि लोग सीधे तरीके से, आराम से जी नहीं सकें.. और जो सच्चे लोग हैं वो बेचारे मरते जा रहे हैं। गुलज़ार ने बहुत सही बात कही थी अपनी एक कविता में कि.. आजकल रोज़ अखबार मेरे घर खून में लथपथ आता है।’

मेरी आवाज ऐसी एकदम तो नहीं थी। धीरे-धीरे हुई। बड़ी मेहनत की मैंने। - फोटो : Social Media

अमीन साहब को लगता है ‘जबतक सच्चाई सच हमारे दिलों में, हमारे कामों में हमारे बर्ताव में न आ जाए.. तबतक ये माहौल सुधरेगा नहीं, हालत बिगड़ती ही चली जाएगी। यहां तक कि हिन्दुस्तान बरबाद हो जाएगा। मुझे बहुत दुख होता है। ’

आवाज़ के इस बेताज बादशाह की ज़िंदगी के उतार-चढ़ावों के बारे में उन्हीं की ज़बान से जानने की बात ही कुछ और है। वो बात करते करते अतीत में चले जाते हैं। ‘मैं गांधीवादी हूं। स्वतंत्रता का जो आंदोलन चल रहा था, उस ज़माने में मैं स्कूल स्टूडेंट था, लेकिन गांधी जी, नेहरू इन सबका हमारे परिवार में बड़ा असर था, क्योंकि मेरे अब्बा के जो चाचा थे, वो थे रहमतुल्ला साहनी, जिन्होंने गांधी जी को वकील बनाने में बहुत मदद की थी उन्हें साउथ अफ्रीका भी ले गए थे।

हमारे नाना जो थे वो थे तजबअली पटेल, वो मौलाना आज़ाद के भी डॉक्टर थे और गांधी जी के भी डॉक्टर थे। उस ज़माने से हमारे परिवार में स्वतंत्रता के आंदोलन को बहुत गहराई से देखा जाता था। और सबसे बड़ी बात ये हुई कि गांधी जी ने हमारी अम्मा को बेटी बना लिया था। अम्मा हमारी काम कर रही थीं सोशल वर्क में। साक्षरता का काम कर रही थीं। खासकर उन औरतों के लिए जो कमाती नहीं थीं, उनको पढ़ाना-लिखाना और जागरूक करना। बहुत काम करती थीं.. कुलसुम साहनी नाम था।

वो पहली हिन्दुस्तानी महिला थीं जिन्होंने नेहरु लिटरेसी अवॉर्ड जीता था। इस काम से गांधी जी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने मेरी मां को बुलाकर कहा कि देखो बेटी, हिन्दुस्तान अब आज़ादी की राह पर है। मैं ये चाहता हूं कि भारत की जो भाषा हो वो सरल हिन्दुस्तानी हो, जो सब समझ सकें इसे।

उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम सब। जैसे हिन्दुस्तानी फिल्म संगीत। उसी तरह की भाषा वो चाहते थे, तो कहने लगे..कि बेटी तुम एक पाक्षिक पत्रिका शुरु करो जो कि तीन लिपियों में छपे। देवनागरी, गुजराती और उर्दू अम्मा ने ये शुरू किया। ‘रहबर’ उसका नाम था। रहबर का मतलब पथ प्रदर्शक। हमारे घर में ही इसका संपादन होता था और बाद में प्रिंटिंग भी वहीं होने लगी। तब लिथो पर छपता था। 

मैं उस वक्त 10-11 बरस का था.. और पत्रिका के साथ प्यून की तरह जुड़ गया। प्रूफ देखने से लेकर और भी इससे जुड़े कई काम। हिन्दी मैंने सीखी नहीं थी ज्यादा। गुजराती में मेरी तालीम हुई थी और अंग्रेजी में भी मैंने काम किया था, तो उसे पढ़ते-पढ़ते मेरे भीतर हिन्दुस्तानी भाषा का रंग छाने लगा।और खासकर ‘रहबर’ में दो कॉलम हर पखवाड़े में आते थे। 

सरल हिन्दी कविता और आसान उर्दू शायरी। ये पढ़कर मुझे बहुत मज़ा आता था। और धीरे-धीरे मैं लिखित रूप में भाषा मैं अच्छी तरह जानने लगा..और फिर आर्टिकल भी लिखने लगा छोटे-छोटे। ये चालीस के दशक की बात है। घर में स्वतंत्रता की बातें होती थीं। मैं पढ़ता था एक गुजराती स्कूल में। तो गुजराती में इतना अच्छा मैं बोलने लगा था, लिखने लगा था, लेकिन हिन्दुस्तानी भाषा के उच्चारण में भी गुजराती का थोड़ा सा असर था, और अंग्रेज़ी बहुत अच्छी तरह बोलता था मैं।  मैं बचपन में ही ऑल इंडिया रेडियो से जुड़ा। मेरे बड़े भाई जो थे हमीद। वो इंग्लिश के बहुत अच्छे ब्रॉडकास्टर थे। उन्होंने ही पहले पहल मेरा रिश्ता रेडियो से जोड़ा।’

तो क्या अमीन साहब की आवाज़ बचपन से ही ऐसी थी रेडियो वाली या उन्होंने इसके लिए कोई खास ट्रेनिंग ली। उन्होंने इसका भी राज़ बताया और साथ ही तब के रेडियो के बारे में भी बताते-बताते अतीत में चले गए–

‘आवाज़ ऐसी एकदम तो नहीं थी। धीरे-धीरे हुई। बड़ी मेहनत की मैंने। उस ज़माने में हमीद भाई ने एक थिएटर ग्रुप ज्वाइन किया था, जो अंग्रेजी में नाटक करता था, उसके जो डॉयरेक्टर थे वो थे सुलतान पदमसी। एलेक पदमसी के बड़े भाई। उन्होंने ही ये थिएटर ग्रुप शुरू किया था। उनके घर पर ही रिहर्सल होती थी। मैं भी जाता था। मैंने भी बहुत थिएटर किए उस दौरान वहां मुझे सीखने को बहुत कुछ मिला। उस जमाने में रेडियो का स्तर इतना उंचा था कि देश में जो सबसे बड़े राइटर्स थे, प्रेजेन्टर्स थे, या जो बोल पाते थे.. ये सब आकर इसमें हिस्सा लेते थे और खुद को बड़ा खुशकिस्मत समझते थे। 

बीबीसी के स्टाइल में शुरू हुआ था ऑल इंडिया रेडियो। सब बड़े-बड़े लोग आते थे, बल्कि लीडर्स भी आते थे और अपने आपको बड़ा खुशकिस्मत समझते थे, कि उनको बुलाया गया है रेडियो पर भाषण देने। रेडियो का वो जो ज़माना था वो लाजवाब था। ड्रामे भी ऐसे-एसे होते थे कि चौंक जाती थी दुनिया। डिस्कशन्स..और भी बहुत कुछ।’

बात करते करते अमीन साहब अपनी निजी ज़िंदगी और अपने शौक तक भी चले जाते हैं ‘मेरी बीवी कश्मीरी पंडित थी और मैं मुसलमान था। कैसे हमारा प्यार हुआ ये भी एक कहानी है। मेरी बीवी जो थी। रमा मट्टू नाम था। उसके चाचा ऑल इंडिया रेडियो के म्युजिक हेड थे।उन्होंने रफी को सिखाने में भी बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी।’

अमीन साहब कुछ देर शांत हो जाते हैं और कहीं खो जाते हैं फिर अचानक खुद को हल्का करते हुए कहते हैं

‘क्लासिकल म्युज़िक मैंने भी चार साल सीखा। मैं एक ज़माने में बहुत अच्छा गाया करता था। फिर एक ज़माना आया जब मेरी आवाज़ फट गई और गाना ज़रा मुश्किल हो गया मेरे लिए। जब भी मैं गाने बैठता तो कोई दोस्त आकर कहता कि ऐ बेसुरे, क्यों बोर करता है।’ 

अमीन साहब को इस बात का मलाल है कि वेस्टर्न म्युज़िक के असर ने भारतीय संगीत की उस ऊंचाई को खत्म कर दिया जो कभी हमारी लोकसंगीत और शास्त्रीय संगीत से मिलकर फिल्म संगीत को सुरीला और दिल में उतरने लायक बना देता था। उन दिनों को संगीत का गोल्डन डेज कहने वाले अमीन साहब अब भी लगातार सक्रिय हैं और आज भी उनकी आवाज़ के चाहने वाले कम नहीं हैं। अमीन साहब को अमर उजाला परिवार की तरफ से जन्मदिन की अशेष शुभकामनाएं और उनके दीर्घायु व स्वस्थ जीवन की कामना।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।
 

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