Hindi News
›
Columns
›
Opinion
›
Time Machine: Railways world's most miraculous industrial revolution, but it became a cursed business
{"_id":"665276ff5cf5150394096cf5","slug":"time-machine-railways-world-s-most-miraculous-industrial-revolution-but-it-became-a-cursed-business-2024-05-26","type":"story","status":"publish","title_hn":"टाइम मशीन: दुनिया की सबसे चमत्कारी औद्योगिक क्रांति है रेलवे, मगर आर्थिक तौर पर बनी अभिशप्त कारोबार","category":{"title":"Opinion","title_hn":"विचार","slug":"opinion"}}
टाइम मशीन: दुनिया की सबसे चमत्कारी औद्योगिक क्रांति है रेलवे, मगर आर्थिक तौर पर बनी अभिशप्त कारोबार
पूरी दुनिया में रेलवे सरकारों की सबसे बड़ी चुनौती है। निजी कंपनियों का संसार आकाश से पाताल तक फैल गया है। मगर सरकारें उन्हें रेलवे में निवेश को राजी नहीं कर पातीं। रेलवे दुनिया की सबसे चमत्कारी औद्योगिक क्रांति थी, मगर यह आर्थिक तौर पर सबसे अभिशप्त कारोबार भी है।
आगे पढ़ने के लिए लॉगिन या रजिस्टर करें
अमर उजाला प्रीमियम लेख सिर्फ रजिस्टर्ड पाठकों के लिए ही उपलब्ध हैं
भारतीय रेलवे
- फोटो :
एएनआई
विस्तार
Follow Us
1920 में सर विलियम एकवर्थ की अगुआई में एक कमीशन बना और इसकी सिफारिश पर 1924 में रेलवे के बजट को सरकार के बजट से अलग कर दिया गया। निजी रेल कंपनियों का सरकारीकरण हो गया। आजादी के बाद भारत की निजी रेलवे पूरी तरह सरकारी हो गई। 2017 में रेलवे बजट आम बजट का हिस्सा बन गया। अब फिर भारतीय रेलवे के निजीकरण की कोशिश शुरू हो रही है।
भारत में चुनावी चकल्लस के बीच जनता को यह पता नहीं चला कि भारतीय रेल यात्री किराये की कमाई में पिछड़ गई है। रेलवे का पैसेंजर राजस्व बीते साल में उस गति से भी नहीं बढ़ा, जिस रफ्तार से भारत की जीडीपी (महंगाई सहित यानी नॉमिनल) बढ़ी है। वंदे भारत ट्रेनों को कामयाब बनाने के लिए बीते साल किराये भी घटाए गए थे, मगर रेलवे को महंगे टिकट लेने वाले यात्री नहीं मिल रहे। दिसंबर, 2021 में भारत सरकार ने निजी ट्रेनें चलाने की योजना रोक दी थी। 30,000 करोड़ का टेंडर लौट गया। यह भारत में रेलवे के निजीकरण की पहली सबसे महत्वाकांक्षी कोशिश थी, रूट तय हो गए थे। निजी कंपनियां और सरकार के बीच कमाई के बंटवारे का फॉर्मूला बन गया, मगर कंपनियों ने भारत के सबसे बड़े ट्रांसपोर्टर यानी रेलवे में दिलचस्पी ही नहीं ली। वर्ष 2022 में सरकार ने रेलवे की संपत्तियां बेचने की कोशिश की। कोई ग्राहक नहीं आया। रेलवे के कुछ विभाग और प्रतिष्ठान बंद करने की तैयारी है, घाटा कम करने या नए संसाधन जुटाने की हर जुगत औंधे मुंह गिर पड़ी।
बीते एक दशक में रेलवे बजट खत्म करने से लेकर निजीकरण तक, तमाम कोशिशों के बाद भी इस महाकाय गतिमान बुनियादी ढांचे की बैसाखियां हटती ही नहीं। रेलवे के घाटे का दुख दूर ही नहीं होता। अलबत्ता भारत अकेला नहीं है। पूरी दुनिया में रेल सरकारों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। निजी कंपनियों का संसार आकाश से पाताल तक फैल गया है। मगर सरकारें उन्हें रेलवे में निवेश के लिए राजी नहीं कर पातीं। रेलवे दुनिया की सबसे चमत्कारी औद्योगिक क्रांति थी, मगर यह आर्थिक तौर पर सबसे अभिशप्त कारोबार भी है।
आइए, टाइम मशीन में विराजिए। चलते हैं करीब 200 साल पीछे रेलवे के चमत्कारी दिनों में...
आपको अपनी सीट पर एक उपन्यास रखा मिला होगा। जब तक हम उड़ान भरते हैं, आप इसका आनंद लीजिए। स्कॉटिश कवि और व्यंग्यकार डब्ल्यू. ई. आइटन का यह व्यंग्य उपन्यास 1845 में आया था। इसका शीर्षक है-हाउ वी गॉट अप द ग्लेनमचकिन रेलवे? हम यूरोपीय इतिहास के जिस युग में जा रहे हैं, वह रेलवे बबल यानी रेलवे में भारी निवेश और नुकसान का दौर है। यह उपन्यास उस वक्त का प्रतिनिधि दस्तावेज माना जाता है।
यह भीड़ देख रहे हैं। यह दुनिया के इतिहास के सबसे अनोखे मोड़ का गवाह बन रही है। यह 1830 है। ब्रिटेन में मैनचेस्टर और लिवरपूल के बीच यात्री ट्रेन चलाई जा रही है।
इस ट्रेन के आने से पहले तक लोग घोड़ों वाली बग्घी पर यात्रा करते थे। पहली यात्री रेल खूब कामयाब हुई। उद्योगपतियों ने रेलवे में पूंजी झोंकनी शुरू कर दी है। ब्रिटेन की सरकार ने एक साथ 3,000 से अधिक रेल लाइनों को मंजूरी दे दी है। ब्रिटेन की आर्थिक हवा रेल क्रांति के किस्सों से महक रही है। निजी कंपनियां और बैंक रेलवे में निवेश का कोई मौका नहीं चूकना चाहते।
आप 21वीं सदी से आए हैं, तो आपको उस तरह के अंधे निवेश में खतरों का एहसास है, मगर ब्रिटेन के लोग तो रेलवे में निवेश के दीवाने हैं। इस दीवानगी को देखते हुए हम 1900 में आ गए हैं। आपको 21वीं सदी वाली दुनिया का एहसास हो रहा होगा। एकाउंटिंग फ्रॉड, पोंजी स्कीमें, झूठे प्रचार, भ्रष्टाचार, वही सब जो इस तरह के निवेश में होता है।
इन सुर्खियों को ध्यान से पढ़िए- ब्रिटेन और अमेरिका की रेल कंपनियां दिवालिया हुईं। बैंक डूबे। असंख्य कंपनियों में निवेशकों की 90 फीसदी पूंजी स्वाहा हो गई। इस चिल्ल-पों के बीच प्रख्यात वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन का नाम आपके कानों तक आया होगा। रेलवे कंपनियां उनकी पूंजी भी ले डूबी हैं। इस रेलवे संकट में ब्रिटेन के साहित्य जगत की प्रख्यात तीन बहनों-द ब्रांटे सिस्टर्स को भी भारी चपत लगी है।
मगर इस संकट के बावजूद रेलवे का आविष्कार दुनिया के काम आया। यह परिवहन का नया जरिया बन गया। सरकारी मदद से रेल क्रांति शुरू हो गई थी। 1870 तक ब्रिटेन में करीब 6000 किलोमीटर रेल लाइन बिछाई जा चुकी थी। अमेरिका में रेल-रोड तेजी से फैलने लगा। पहले विश्वयुद्ध की तोपें गरजने तक रेलवे एक प्रमुख रणनीतिक ताकत बन गई।
अब हम भारत पहुंच रहे हैं। दौर तो रेलवे क्रांति का ही है। पहले विश्वयुद्ध की भूमिका बनने तक ब्रिटेन की पूंजी रेल के जरिये ब्रिटिश राज के उपनिवेशों में पहुंचने लगी है। रेलवे ब्रिटिश राज का सबसे बड़ा विदेशी निवेश बन गया है। 1914 तक ब्रिटिश रेलवे निवेश का 40 फीसदी हिस्सा अमेरिका में था। अब भारत में भी रेल पटरियों की खटर-पटर प्रारंभ हो रही है। ब्रिटेन की कंपनियों ने रेलवे में निवेश शुरू कर दिया है। यह 1853 का मुंबई है, थाणे तक 20 किलोमीटर के रास्ते पर पहली रेल चल पड़ी है। भारत जब आजाद होगा, तो यहां 24,000 किलोमीटर का रेल नेटवर्क तैयार होगा।
हम तो 1850 में हैं, सो रेलवे की भारतीय क्रांति को करीब से देखते हैं। भारत में रेलवे नेटवर्क की स्थापना के पीछे है निजीकरण का एक जटिल ताना-बाना। 1850 के बाद भारत में दस निजी रेल कंपनियां थीं, जो पूर्वी भारत, पूर्वी बंगाल, बाम्बे, बड़ौदा, सेंट्रल इंडिया, इंडियन पेनेनसुएला, सिंध, पंजाब, दिल्ली, मद्रास, दक्षिण भारत, अवध और रुहलेखंड के रेलवे नेटवर्क संभालती थीं। इनमें ब्रिटिश पूंजी लगी है। ब्रिटिश राज और भारत की ब्रितानी सरकार ने इन कंपनियों को मुफ्त जमीन और निवेश पर पांच फीसदी रिटर्न की गारंटी दी है। यह 21वीं सदी के सड़क विकास के बीओटी मॉडल का पूर्वज जैसा महसूस होगा। अलबत्ता 1870 आने तक बात बिगड़ने लगी।
ब्रिटिश राज गलियारों में इस वक्त यह चर्चा तेज है कि लंदन में सेक्रेटरी ऑफ इंडिया और भारत की बर्तानवी सरकार के बीच रेलवे के प्रबंधन को लेकर गहरे मतभेद उभर आए हैं। कंपनियां गारंटीड रिटर्न नहीं दे पा रही थीं। ब्रिटिश सरकार का आर्थिक हाल बुरा होने लगा है। नतीजतन रेल कंपनियों का सरकारीकरण शुरू हो रहा है। भारत की ब्रिटिश सरकार कंपनियों में हिस्सेदारी लेने लगी। भारत में सफर करते हुए आप पहले विश्वयुद्ध और भारत में रेलवे को लेकर निजी कंपनियों व सरकार के बीच जंग की खबरें सुन रहे हैं। झगड़ा इस कदर बढ़ा है कि 1920 में सर विलियम एकवर्थ की अगुआई में एक कमीशन बना और इसकी सिफारिश पर 1924 में रेल बजट को सरकारी बजट से अलग कर दिया गया। निजी रेल कंपनियों का सरकारीकरण हो गया। आजादी के बाद भारत की निजी रेलवे सरकारी हो गई। 2017 में रेल बजट आम बजट का हिस्सा बन गया। अब फिर भारतीय रेल के निजीकरण की कोशिश शुरू हो रही है।
टाइम मशीन का सफर अब पूरा होने के करीब है। स्क्रीन पर तैरती सुर्खियों से गुजरते हुए आपको पता चलेगा कि रेलवे का घाटा पूरी दुनिया के लिए मुसीबत है। निजीकरण को लेकर दुनिया के तजुर्बे अच्छे नहीं हैं। 20वीं सदी में रेलवे का इतिहास दिवालियापन और निजी कंपनियों को नुकसान का है।
यही वजह है कि 21वीं सदी का सूरज उगने तक दुनिया के सभी देशों में रेलवे का पूरी तरह या आंशिक राष्ट्रीयकरण हो गया था। रेल निजी कंपनियों को रास नहीं आती। यह अभिशाप बीते सौ बरस से रेलवे का पीछा नहीं छोड़ रहा। निजीकरण की कोशिशें बार-बार औंधे मुंह ढेर हो जाती हैं। अब टाइम मशीन दिल्ली के रेल भवन के सामने उतर रही है। अब तो अगली सरकार ही बताएगी कि रेलवे के घाटे का दुख कैसे दूर होगा।
हम डाटा संग्रह टूल्स, जैसे की कुकीज के माध्यम से आपकी जानकारी एकत्र करते हैं ताकि आपको बेहतर और व्यक्तिगत अनुभव प्रदान कर सकें और लक्षित विज्ञापन पेश कर सकें। अगर आप साइन-अप करते हैं, तो हम आपका ईमेल पता, फोन नंबर और अन्य विवरण पूरी तरह सुरक्षित तरीके से स्टोर करते हैं। आप कुकीज नीति पृष्ठ से अपनी कुकीज हटा सकते है और रजिस्टर्ड यूजर अपने प्रोफाइल पेज से अपना व्यक्तिगत डाटा हटा या एक्सपोर्ट कर सकते हैं। हमारी Cookies Policy, Privacy Policy और Terms & Conditions के बारे में पढ़ें और अपनी सहमति देने के लिए Agree पर क्लिक करें।